आज अर्सों बाद वह डर दोबारा महसूस हुआ,
अपनों को खोने का डर,
अपनों से दूर होने का डर,
अपनी पहचान खोने का डर,
सपने ना देख पाने डर,
सपनों को साकार ना कर पाने डर,
अपनी मुस्कुराहट खो देने का डर,
अपनों की मुस्कुराहट खो देने का डर।
उस डर में भी एक नशा, एक कशिष, एक कसक है,
जो मुझे हर वक्त उसकी ओर खींच लेती है,
बंद कर लिया है मैंने उस डर को अपने मन में,
छिपा लिया है उसे सारी दुनियां से।
अगली बार जब भी मुझसे मिलो,
अपने साथ बैठकर मुझे जी भर कर डरने की सहजता देना,
थक गई हूं हर बार उस डर का गला घोंटकर,
ज़िन्दा रहने दो उस डर को मेरी अंतरात्मा में,
डरना चाहती हूं रोज़, थोड़ा-थोड़ा।
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