क्यों? आख़िर क्यों, सच को ही सबूत की ज़रूरत होती है? क्यों, जो 'मैं' कहती हूं वो सच और जो 'तुम' कहते हो वो झूठ होता है? क्यों, हर बार झूठा सच ही सच कहलाता है? क्यों? आख़िर क्यों, कोई अजनबी किसी और अजनबी के लिए शांत रह जाता है? क्यों, अपनों में यह गुण हवा होता है? क्यों, हर बार अपने पराए और पराए अपने से लगते हैं? क्यों? आख़िर क्यों, हर रिश्ते को नाम देना ज़रूरी होता है? क्यों, दो लोग केवल प्यार में नहीं हो सकते? क्यों, किसी के और के लिए मैं अपनी जान से दूर जाऊं? क्यों? आख़िर क्यों, मैं लिखती हूं? क्यों, मैंने लिखना शुरू किया? क्यों, आज अंधेरे से इस कविता की प्रेरणा मिली? क्यों? आख़िर क्यों?
तुम्हारे लिए बोलने लगी, तुम्हारे लिए चलने लगी, तुम्हारे लिए पढ़ने लगी, तुम्हारे लिए लिखने लगी। तुम्हे लिखती थी, तुम्हे लिखती हूं, तुम ही को लिखती रहूंगी, अपनी आखिरी सांस तक। तुम्हारे बारे में सोचने लगी, तुम्हारे सपनो में खोने लगी, तुम्हे अपना मानने लगी, और, तुम्हे कल से ज़्यादा चाहने लगी। -लिपि