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आख़िर क्यों?

  क्यों? आख़िर क्यों, सच को ही सबूत की ज़रूरत होती है? क्यों, जो 'मैं' कहती हूं वो सच और जो 'तुम' कहते हो वो झूठ होता है? क्यों, हर बार झूठा सच ही सच कहलाता है? क्यों? आख़िर क्यों, कोई अजनबी किसी और अजनबी के लिए शांत रह जाता है? क्यों, अपनों में यह गुण हवा होता है? क्यों, हर बार अपने पराए और पराए अपने से लगते हैं? क्यों? आख़िर क्यों, हर रिश्ते को नाम देना ज़रूरी होता है? क्यों, दो लोग केवल प्यार में नहीं हो सकते? क्यों, किसी के और के लिए मैं अपनी जान से दूर जाऊं? क्यों? आख़िर क्यों, मैं लिखती हूं? क्यों, मैंने लिखना शुरू किया? क्यों, आज अंधेरे से इस कविता की प्रेरणा मिली? क्यों? आख़िर क्यों?
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तुम्हें कल से ज़्यादा चाहने लगी।

  तुम्हारे लिए बोलने लगी, तुम्हारे लिए चलने लगी, तुम्हारे लिए पढ़ने लगी, तुम्हारे लिए लिखने लगी। तुम्हे लिखती थी, तुम्हे लिखती हूं, तुम ही को लिखती रहूंगी, अपनी आखिरी सांस तक। तुम्हारे बारे में सोचने लगी, तुम्हारे सपनो में खोने लगी, तुम्हे अपना मानने लगी, और, तुम्हे कल से ज़्यादा चाहने लगी। -लिपि

डर

  आज अर्सों बाद वह डर दोबारा महसूस हुआ, अपनों को खोने का डर, अपनों से दूर होने का डर, अपनी पहचान खोने का डर, सपने ना देख पाने डर, सपनों को साकार ना कर पाने डर, अपनी मुस्कुराहट खो देने का डर, अपनों की मुस्कुराहट खो देने का डर। उस डर में भी एक नशा, एक कशिष, एक कसक है, जो मुझे हर वक्त उसकी ओर खींच लेती है, बंद कर लिया है मैंने उस डर को अपने मन में, छिपा लिया है उसे सारी दुनियां से। अगली बार जब भी मुझसे मिलो, अपने साथ बैठकर मुझे जी भर कर डरने की सहजता देना, थक गई हूं हर बार उस डर का गला घोंटकर, ज़िन्दा रहने दो उस डर को मेरी अंतरात्मा में, डरना चाहती हूं रोज़, थोड़ा-थोड़ा।

ख़ामोशी

मेरी खामोशी को मेरी कमज़ोरी ना समझना जनाब, ख़ामोश हूं, मौन नहीं। तमाशा करना मक्कारों का काम है, ईमानदारों की ख़ामोशी ही काफ़ी होती है। आपके रोने से यहां किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला,  इसलिए, जनाब मुस्कुराइए। खामोशी में रोना एक कला है, जो इसे सीख गया वो कलाकार है, जो न सीख पाया, वह उससे जलकर राख है। दूसरों से अपनी तकलीफ साझा तभी करे, जब वो आपकी चोट पर मरहम लगाए, क्योंकि, घाव कुरेदने वाले काफ़ी मिल जायेंगे, मरहम लगाने वाला कोई नहीं होता। तूफान के पहले की शांति को बहार समझकर, दरिया में उसने नव उतार ली, अब, तूफान आयेगे और, उसे डूबा ले जायेगा। दोबारा कह रही हूं, मेरी खामोशी से खुश होकर मेरी मैयात पर मत आना, मैं वापस आऊंगी, क्योंकि, ख़ामोश हूं, मौन नहीं

मैं सीता हूं।

  बनारस की गलियों से गुजरते वक्त एक लड़के ने हाथ खींचकर पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?" अपना बुरखा संभालते हुए, सख़्ती से हाथ छुड़ाकर मैंने कहा, "जनाब नाम में क्या रखा है? आखिर हूं तो मैं सीता ही।" इस पर वह सोचने लगा, और कहा, "पर तुम तो मुसलमान हो, तुम हमारी सीता मैय्या कैसे हो सकती है?" मन तो काफ़ी हो रहा था कहने का कि, हर रोज़ हजारों रावणो से अपनी आबरू बचाकर, अपने ही पति को जब अपनी पवित्रता का प्रमाण देना पड़े, तब समझ में आएगा कि, मैं भी सीता हूं। हर रोज़, हर जगह, जब कोई तुम्हें ग़लत तरीक़े से छुए, और तुम कुछ ना कर सको, उस वक्त आंखों में जो दर्द, जो आक्रोश, अश्रु के रूप में बाहर आए, किसी ज्वालामुखी से कम नहीं होता। उस ज्वालामुखी को जब, "ग़लती तुम्हारी ही थी," कहकर और भड़काया जाए, तब मालूम होगा, कि मैं भी सीता हूं। मन तो काफ़ी था कहने का, बस कहा नहीं। सिर्फ पलटकर लौटने लगी। वहीं दूर खड़ी एक लड़की यह सब कुछ देख रही थी, पास आकर उसने पूछा, "आपी, आपने उसे मारा क्यों नहीं?" मुस्कुराकर मैंने कहा, "जाने दो, रावण से दूर रहना चाहिए।" कु

जज़्बात

  इंसानों के बाज़ार में, जज्बातों का मोल ज़रा कम है। लबों पर हंसी होते हुए भी, आँखें ज़रा नम है। सब कुछ होते हुए भी, कभी कभी कुछ कम सा लगता है। अपनों का साथ होते हुए भी, एक अकेलापन सा लगता है। अश्रु हैं नयनों में, मगर बह नहीं रहे। जानते हैं सब हम, मगर कुछ कह नहीं रहे। इंसानों के बाज़ार में, जज़्बातों का मोल ज़रा कम है। लबों पर हंसी होते हुए भी, आँखें ज़रा नम है।